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Monday 1 February 2016

ये रेस्टोरेन्ट खाने का बिल नहीं लेता फिर भी कमाया 3.5 लाख का मुनाफा

गुजरात के शहर अहमदाबाद में एक ऐसा रेस्टोरेन्ट है, जहां पर ग्राहकों से कोई पैसा नहीं लिया जाता है। अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ से लगे नवजीवन प्रेस के कैम्पस रेस्टोरेन्ट मे भोजन का कोई बिल नही दिया जाता है। आप खाने का पैसा मर्ज़ी मुताबिक़ चुका सकते हैं। इसके लिए आपको कोई कुछ कहेगा भी नहीं।

'कर्म कैफ़े' नाम के इस रेस्टोरेंट को नवजीवन प्रेस ने अपने कैंपस में शुरू किया था। नवजीवन प्रेस कई दशक से महात्मा गांधी की किताबें छापता रहा है। इस रेस्टोरेन्ट मे कोई वेटर या कोई मैनेजर भी नहीं है भोजन व अन्य खाद्य पदार्थ रखे रहते हैं जिसको जो मर्जी हो वह स्वत: लेना होता है।

नवजीवन प्रेस के युवा प्रबंध निदेशक विवेक देसाई के मुताबिक वक्त के साथ गांधी मूल्यों में भरोसा करने वाले लोगों को भी बदलना चाहिए। इसी सोच के साथ हमने तय किया कि नवजीवन प्रेस में आने वाले लोगों के लिए कुछ नया किया जाए। विवेक देसाई कहते हैं कि नवजीवन प्रेस में किसी मुलाक़ाती के लिए पीने के पानी के अलावा कोई व्यवस्था नहीं थी, जबकि यहां रोज़ सैकड़ों लोग आते हैं। उन लोगों की सुविधा के लिए एक रेस्टोरेंट खोलने का विचार आया। लेकिन हमें गांधी जी के भरोसे जैसा रेस्टोरेंट खोलना था। तब हमने तय किया कि कोई हमारे रेस्टोरेंट में आए तो हम उसे बिल नहीं देंगे।

हालांकि इसकी व्यवस्था ज़रूर है कि उपभोक्ता ख़ुद तय करे कि उसे क्या भुगतान करना है और वह रेस्टोरेंट से बाहर रखे डिब्बे में रकम छोड़ सकता है। इसके बावजूद यह रेस्टोरेंट घाटे में नहीं है, लाखों का मुनाफ़ा कमा रहा है।

विवेक देसाई कहते हैं कि कर्म रेस्टोरेंट ने एक साल पूरा किया तो हमने हिसाब लगाया। सालभर का ख़र्च निकालने के बाद हमने साढ़े तीन लाख रुपए मुनाफ़ा कमाया है। यहां की ख़ासियत यहां का शांत वातावरण है, जो आम लोगों के साथ साथ कॉर्पोरेट कंपनियों को भी रास आ रहा है। यहां कई कंपनियां अपनी कांफ्रेंस करने लगी हैं।

कंपनी के महाप्रबंधक अश्विन शाह के मुताबिक गुजरात के बाहर से आने वाले लोगों को कर्म कैफ़े में खाना अच्छा लगता है। ख़ासकर यहां की गांधी थाली से हमारे क्लाइंट पर अच्छा असर होता है।

खाने के बाद डिश वापस करना भी यहां की सेल्फ़ सर्विस के अंदर ही है। कैफ़े को संभालने वाले सुनील उपाध्याय बताते हैं कि हमारा मक़सद केवल रेस्टोरेंट चलाना नहीं है। मक़सद यहां आने वालों में गांधी साहित्य के प्रति दिलचस्पी भी पैदा करना है। इसके लिए कैफ़े के अंदर एक लाइब्रेरी भी है, जहां 10 रुपए से लेकर 30 रुपए तक की पुस्तकें हैं। यहां कोई भी बैठकर पुस्तक पढ़ सकता है।

इतना ही नहीं आपको कैफ़े के अंदर वाई-फ़ाई भी मुफ़्त मिलता है। उपाध्याय के मुताबिक़ यहां रोज़ डेढ़ सौ लोग आते हैं। तो क्या कभी ऐसा हुआ, जब लोग खाना खाकर चले गए हों और पैसे न दिए हों। यह पूछने पर सुनील उपाध्याय बताते हैं कि पहले कुछ लोग ऐसे आते थे, लेकिन अब उनकी संख्या न के बराबर है। वैसे यहां कई लोग ऐसे भी आते हैं जो डिशेज़ की क़ीमतों को लेकर काफ़ी पूछताछ करते थे। ऐसे में अब कैफ़े में सामान के मूल्यों की सूची ज़रूर लगाई गई है, लेकिन उनके मुताबिक़ पैसा देने के लिए आपको कोई कहेगा नहीं और न मांगेगा।

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